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RAJASTHAN STATE FORWARD BLOC

4658, BURAD HOUSE,

BERI-KA-BAS,

KGB-KA-RASTA,

JOHARI BAZAR,

JAIPUR-302003





09001060013
28 अगस्त, 2008

आल इण्डिया फारवर्ड ब्लाक की लखनऊ में दिनांक 22-24 अगस्त, 2008 को हुई राष्ट्रीय समिति की विशेष बैठक में पारित प्रस्ताव एवं निर्णय
नव साम्राज्यवाद के खिलाफ अनवरत संघर्ष की शुरुआत करें

इस समय जब देश अभूतपूर्व राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संकटों से रू-ब-रू है और देश में तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता कसौटी पर है, हम देश की राजनीतिक तकदीर का फैसला करनेवाले राज्य उत्तर प्रदेश की ऐतिहासिक राजधानी लखनऊ मे अपनी पार्टी की राष्ट्रीय समिति की विशेष बैठक के लिए एकत्र हुए हैं।
इस समय जो विशेष तरह की राजनीतिक परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है, उसकी सहज मांग है कि नव साम्राज्यवाद के खिलाफ जोरदार और समझौताविहीन संघर्ष शुरू किया जाए। राष्ट्रीय सरकारें कामगार वर्ग के हितों पर हावी हो रही हैं और नीतियां बनाने के मामले में वह कारपोरेट जगत के हितों के समक्ष नतमस्तक है। भारत समेत दुनिया की तमाम सरकारों का चेहरा बदलता जा रहा है और अब वह कारपोरेट घरानों की नीतियों को लागू करने के लिए उनका हिरावल दस्ता साबित हो रही हैं। इसलिए अगर सरकार की परिभाषा को इस तरह से परिभाषित किया जाए तोइसमें कोई अतिशयोक्ति नही होगी कि अब सरकारें "कारपोरेट के लिए, कारपोरेट द्वारा और कारपोरेट की हैं"।
विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुदद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन जैसी नवसाम्राज्यवादी ताकतों के चंगुल में फंसी अंतरराष्ट्रीय स्तर की वित्तीय और वाणिज्यिक संस्थाएं राष्ट्रीय सरकारों को इस बात के लिए मजबूर करती हैं कि वे अपने घरेलू आर्थिक, कृषि और सांस्कृतिक क्षेत्र तक में अधिकाधिक उदारवादी नीतियों को अपनाएं। ग्लोबलाइजेशन का जैसा स्पष्ट चेहरा आज दिख रहा है वैसा पहले कभी नहीं दिखा था। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, ग्लोबलाइजेशन ने विश्व स्तर पर संपत्ति के ध्रुवीकरण के मामले में अभूतपूर्व स्तर पर अत्यधिक असमानता पैदा कर दिया है। कुछ लोगों के हाथ में तो अपार सपंत्ति आ गई है जबकि दुनिया भर के विशालतम आबादी का जीवन स्तर नारकीय स्तर तक पहुंच गया है। यह बात तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सिद्ध हो गयी है कि दुनिया की एक प्रतिशत आबादी एक ओर जहां दुनिया की संपत्ति के 40 फीसदी का उपभोग कर रही है वहीं 50 फीसदी आबादी घोर गरीबी और बदहाली में जीवन गुजार रही है और उसके हिस्से मात्र 1 फीसदी संपत्ति आ रही है। भारत में भी 48 खरबपति देश की करीब 30 फीसदी आय पर नियंत्रण कर रहे हैं वहीं देश के 40 फीसदी बच्चे घोर कुपोषण के शिकार हैं। इस तरह के आंकड़े हमारे देश की आबादी की बड़ी संख्या पर पड़ रहे ग्लोबलाइजेशन के निराशाजनक प्रभाव को दर्शाते हैं। दुनिया के 10 धनवानों में भारत के 4 शामिल हैं जबकि जापान जैसे संपन्न देश के केवल दो।
यह बहुत ही निराशाजनक तथ्य सामने आया है कि आजादी के 62 वर्षों बाद भी 78 फीसदी लोग प्रतिदिन 20 रुपये से भी कम अर्जित कर पाते हैं। जबकि दूसरी ओर अरबपति भारतीयों की संख्या बढ़कर 48 तक पहुंच गयी है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा 2007-08 के लिए हाल ही में जारी मानव विकास रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि भारत का स्थान 177 देशों की सूची में 128वें स्थान पर है। यह पैमाना जीवन की अपेक्षाओं, शिक्षा और आय के आधार पर तैयार किया गया है। अब तक कि सभी सरकारों की आर्थिक नीतियों का मुख्य जोर 20 फीसदी प्रभावशाली आबादी के लिए रहा है। आज करोड़ों युवा बेरोजगार हैं। शिक्षा अब यह व्यापार बन गया है और इसका बड़े पैमाने पर व्यावसायिकरण हो गया है, 70 फीसदी बच्चे औ महिलाएं रक्तहीनता और कुपोषण के शिकार हैं, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, कृषि विकास दर घटती जा रही है, उद्योग जगत गतिहीनता का शिकार है, मूलभूत जरूरतें आम आदमी के लिए महंगी होती जा रही हैं, महंगाई आसमान छू रही है, लोक कल्याणकारी-समतावादी और धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप् में विकसित होने में देश असफल साबित हो रहा है, आर्थिक विषमता की खाई चौड़ी होती जा रही है, ग्रामीण क्षेत्र उपेक्षा के शिकार हैं, सामाजिक सेवाओं के लिए सार्वजनिक निवेश कम होता जा रहा है और कुल मिलाकर आम आदमी का जीवन कष्टप्रद होता जा रहा है। इस तरह के आंकड़ों से साबित हो जाता है कि नव साम्राज्यवादी ताकतों की नव-उदारवादी नीतियां कारपोरेट घरानों के लिए हैं न कि देश के आम आदमी के लिए।
वित्तीय सहायता रूपी रोटी के चंद अस्थायी टुकड़ों के लिए तीसरी दुनिया की सरकारें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा संचालित ढांचागत संयोजन प्रोग्राम का अनुसरण कर रही हैं। इन नव साम्राज्यवादी ताकतों कें समक्ष घुटना टेकने से पहले ये सरकारें प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर साम्राज्यवाद की युद्ध-अर्थव्यवस्था का साझीदार भी बन जाती हैं। इस कारण हर देश का स्वतंत्र राजनीतिक चरित्र समाप्त होता जा रहा है। लोकतंत्र समर्थक व्यक्ति प्रशासन के इस नये मॉडल को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। कठोर संघर्षों के बाद प्राप्त हुई भारत की आजादी पर भी इन नव साम्राज्यवादी ताकतों का का शिकंजा कसता गया है। देश का सत्ताधारी वर्ग अमेरिकी साम्राज्यवाद का अनुसरण करता हुआ देश को बदहाली की ओर ले जा रहा है, और वह जनविरोध की सरासर अनदेखी कर रहा है। वर्तमान सरकार का अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रति दासभाव ने हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों की ऐतिहासिक परंपरा को काफी नुकसान पहुंचाया है। भारत के प्राचीन शासकों ने भी इसी तरह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के समक्ष दो शताब्दी तक आत्मसमर्पण किया था। अब नये शासक देश को एक बार फिर से अमेरिकी साम्राज्यवाद की चाकरी में लगाने की कोशिश में लगे हैं। इतिहास के इस निर्णायक मोड़ पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के हम अनुयायी चुप नहीं बैठ सकते हैं। हम देश की समझौता परस्त राष्ट्रीय सरकार की घुटनाटेकु प्रवृत्ति के खिलाफ अंतहीन जन संघर्ष छेड़ने की राह पर हैं।
राष्ट्रीय समिति की यह विशेष बैठक हमारे संघर्षों को मजबूती प्रदान करने और नये तरीके के बारे मे निर्णय लेने के लिए आयोजित की गयी है। समय की मांग है कि नव-साम्राज्यवाद के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष शुरू कर दिया जाए। इस संघर्ष को शुरू करते समय हम इतिहास से सीख लेंगे और भविष्य पर दृष्टि।
समर्थन वापसी : संप्रग सरकार ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के समक्ष
आत्म समर्पण कर दिया
14वीं लोकसभा चुनाव का परिणाम केद्र में सरकार बनाने के लिए किसी एक दल के पक्ष मे नहीं था। चुनाव में बुरी तरह पराजित हो गयी भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने खरीद-फरोख्त और साठगांठ के जरिए फिर से सरकार बनाने की कोशिश कर रही थी। देश एक दूसरे राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा था। इस चुनाव मे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी कांग्रेस ने कुछ क्षेत्रीय दलों को मिलाकर एक नया गठबंधन बनया और इस तरह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का जन्म हुआ। हमने भाजपा जैसी सांप्रदायिक ताकत को सत्ता से दूर रखने के लिए अन्यवामपंथी पार्टियों के साथ मिलकर आम सहमति से बने साझा न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर इस संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को बाहर से समर्थन देने का फैसला किया था। इसके बाद जहां कहीं भी सरकार ने साझा न्यूनतम कार्यक्रम से हटने की कोशिश की, हमने तुरंत सक्रिय हस्तक्षेप किया। हमने उनकी आर्थिक और कृषि नीतियों की कड़ी आलोचना की है और उन्हें साझा न्यूनतम कार्यक्रम में किए वायदे के बारे में बार-बार याद दिलाने का हरसंभव प्रयास किया।
भारत-अमेरिकी असैन्य परमाणु सहयोग समझौता उपरोक्त न्यूनतम साझा कार्यक्रम का सरासर उल्लंघन है। इस साझा न्यूनतम कार्यक्रम के मुददों में यह साफ लिखा गया था कि भारत की अपनी एक स्वतंत्र विदेश नीति होगी। लेकिन अमेरिकी हाइड एक्ट के तहत किये गये इस समझौते ने हमारी स्वतंत्र विदेश नीति की अवधारणा को ही चकनाचूर कर दिया। इसलिए हमने सरकार से कहा कि वह इस समझौते पर आगे नहीं बढ़े। लेकिन सरकार ने वामदलों के हर सुझाव को दरकिनार कर दिया और उसने इस करार और इसपर अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के साथ होनेवाले भारत केंद्रित सेफगार्ड समझौते पर नजर रखने के लिए गठित संप्रग-वाम राजनीतिक समिति में उभरी हर समझदारी का उल्लंघन किया। जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक तौर पर यह घोषणा कर रहे थे कि संप्रग सरकार इस समझौते को आगे बढ़ाएगी, वामदलों ने एकमत से सरकार से समर्थन वापस लेने का निर्णय कर कर लिया। इस तरह हमने 9 जुलाई 2008 को संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
पिछले तीन सालों से, जबसे भारत-अमेरिका परमाणु करार की घोषणा हुई है, अखिल हिन्द फारवर्ड ब्लाक और अन्य वामपंथी पार्टियां इस करार के खिलाफ अनवरत संघर्ष छेड़े हुए हैं। हम बार बार दलील दे चुके हैं कि यह केवल परमाणु समझौता भर नहींहै। यह भारत-अमेरिका रणनीतिक साझीदारी का एक हिस्सा भी है, जिससे हमारी आर्थिक, विदेश, कृषि, वाणिज्य-व्यापार व सांस्कृतिक नीतियां भी प्रभावित होंगी। कुल मिलाकर यह करार हमारी ऊर्जा जरूरतों को बहुत ज्यादा पूरा नहीं करनेवाली है। यह करार केवल अमेरिका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की परमाणु व्यापार हितों को पूरा करनेवाली है।
इन परिस्थितियों को देखते हुए, वामदलों के समक्ष संप्रग सरकार से समर्थन वापस लेने के सिवा और कोई चारा नहीं बचा था। यहां यह बात भी ध्यान देने लायक है कि संप्रग सरकार इस करार पर चर्चा प्रक्रिया के दौरान पारदर्शिता नहीं अपना रही थी और उसकी हर चंद कोशिश थी कि अमेरिकी प्रशासन के हितों के अनुरूप ही गुपचुप तरीके से करार को आगे बढ़ाया जाए। इसके पूरे प्रमाण हैं कि संप्रग सरकार वामदलों को संतुष्ट कर पाने और इस संबंध में संतोषजनक जवाब देने में पूरी तरह विफल रही है। सरकार ने 123 समझौते पर गठित संप्रग-वाम राजनीतिक समिति में वाम के साथ किये वादे को भी तोड़ा है। इस समिति में इस बात पर सहमति बनी थी कि भारत-अमेरिकी असैन्य परमाणु सहयोग के क्रियान्वयन के पहले इस मुददे पर समिति के सुझावों पर गौर किया जाएगा। लेकिन आठ दौर की वार्ताओं के बाद भी संप्रग ने आईएईए-भारत केंद्रित सेफगार्ड समझौते के "गोपनीय दस्तावेजों" को समिति के सामने नहीं रखा। सरकार की ओर से हाइड एक्ट (हेनरी जे. हाइड यूएस इंडिया पीसफुल एटामिक एनर्जी को-आपरेशन एक्ट आफ 2006) की धारा 104 ई (आई), 104जी (2), 106, 104बी,104जी (2)के, 104सी के बारे में कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया गया है। एक्ट की ये धाराएं खासतौर पर यह प्रावधान करती हैं कि अगर भारत कोई परीक्षण करता है तो अमेरिका उसे दिए जा रहे परमाणु सहयोग को रोक देगा और संवदिर्धत यूरेनियम समेत सभी प्रकार की परमाणु सामग्री वापस ले लेगा। इस एक्ट में कहा गया है कि भारत व्यापक सुरक्षा पहल (पीएसआई) में सहभाग और अंतत: सहयोग करेगा, जिसके अनुसार अंतरराष्ट्रीय समुद्र में जहाजों को रोकने का अधिकार अमेरिका को दिया गया है। भारत की विदेशनीति संबंधी मुददों पर हर साल अमेरिकी राष्ट्रपति अपनी कांग्रेस को रिपोर्ट देगा।
भारत की विदेशनीति अमेरिका के समनुरूप ही होगी। भारत उन अमेरिकी संधियों और नियमों से बंध जाएगा, जिसका अबतक वह हिस्सा नहीं है। इनमें एमटीसीआर (यूएस मिसाइल टेक्नोलाजी एंड कंट्रोल रिजीम) और एफएमसीटी (फिसल मैटेरियल कट आफ ट्रीटी) शामिल हैं। यह सत्य है कि हाइड एक्ट अमेरिका का अपना कानून है लेकिन यह अमेरिका को 123 समझौते के प्रति भी उत्तरदायी बनाता है। 123 समझौते का अनुच्छेद 2 कहता है कि इस समझौते के सभी पक्ष: "इस समझौते का क्रियान्वयन इस संबंध में हुए सभी संधियों, राष्ट्रीय कानूनों, परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उपयोग से संबंधित आवश्यक नियामकों और लाइसेंसों के तहत ही करेंगे।" अनुच्छेद 2 का प्रयोग परमाणु आपूर्ति में देरी, रद्द या अस्वीकार करने के लिए अमेरिका किसी भी समय कर सकता है। और इस तरह से वह भारत पर विदेश या घरेलू नीतियों के बारे में दबाव डालने मे हमेशा सक्षम रहेगा।
यह 123 समझौता हमारी ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए बहुत कुछ हमारी मदद नहीं करता है। भारत में इस समय कुछ ऊर्जा जरूरतों का मात्र 2.6 फीसदी ही परमाणु ऊर्जा से मिल पाता है। प्रधानमंत्री ने घोषणा की है कि भविष्य में 40,000 मेगावाट परमाणु ऊर्जा पैदा की जाएगी, जो हमारी कुल ऊर्जा की 7 फीसदी के लगभग होगी। इस लक्षित 40,000 मेगावाट में से 10,000 मेगावाट तो घरेलू रिएक्टरों से ही पैदा की जाएंगी। बाकी की 30,000 मेगावाट के उत्पादन का खर्च लगभग 3,30,000 करोड़ रुपये आएगा। अगर यही 30,000 मेगावाट हम कोयले से उत्पादित करते हैं तो इसकी लागत मात्र 1,20,000 करोड़ रुपये होगी और इसके उत्पादन में गैस और जल का उपयोग किया जाए तो लागत केवल 90,000 करोड़ रुपये आएगी। इसलिए ये वैकल्पिक स्त्रोत भविष्य में हमारे लिए कहीं अधिक लाभदायक साबित होंगे। समझौता 123 उस न्यूनतम साझा कार्यक्रम (सीएमपी) के प्रावधानों का भी उल्लंघन है, जिसमें साफ कहा गया है कि भारत की अपनी स्वतंत्र विदेश नीति होगी। लेकिन जब भारतीय विदेश नीति को अमेरिकी विदेश नीति के अनुरूप बनाने की शर्त लागू होगी तब हमारी स्वतंत्र विदेश नीति का कोई मायने-मतलब नहीं रह जाएगा। यह समय की कसौटी पर अब तक खरी उतरी हमारी गुट-निरपेक्ष विदेश नीति के भी खिलाफ हो जाएगी। अखिल हिन्द फारवर्ड ब्लाक अमेरिका द्वारा प्रचारित इस तथ्य को स्वीकार नहीं करता है कि 123 समझौता भारतीय जनता की हर समस्याओं का रामवाण इलाज है। भारत की जनता जब अभूतपूर्व मुद्रा स्फीति और आवश्यक वस्तुओं में जबरदस्त महंगाई से त्रस्त हो रही हो, तब सरकार को परमाणु ऊर्जा और अमेरिकी राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री द्वारा दिए वचन को निभाने के बजाये मुद्रास्फीति कम करने और महंगाई रोकने पर ध्यान देना चाहिए। वामदलों, वैज्ञानिक जगत, प्रगतिशील तबकों और संसद के मत को दरकिनार कर संप्रग सरकार ने वामदलों, संसद और पूरे देश के साथ धोखाधड़ी की है।
संसदीय लोकतंत्र की हत्या
वाम दलों द्वारा समर्थन वापस लिये जाने के कारण डा. मनमोहन सिंह नीति संप्रग सरकार 22 जुलाई 2008 को लोकसभा में विश्वास मत लाने को मजबूर हुई। उस दिन सारे देश ने देखा कि किस तरह संसदीय लोकतंत्र की हत्या कर दी गई। घूसखोरी, दलाली और खरीद-फरोख्त का सहारा लेकर सरकार ने सदन में अपना बहुमत साबित किया।
लेकिन कारपोरेट घरानों की मदद से कांग्रेस व समाजवादी पार्टी द्वारा रचा गया क्रास वोटिंग और सांसदों की अनुपस्थिति से यह साबित हो गया कि वामदलों द्वारा समर्थन वापस लेते ही सरकार का चेहरा बदल गया। सरकार अगर इस समय बची हुई है तो वह केवल क्रास वोटिंग के कारण, नहीं तो उसके पास बहुमत से दो कम केवल 268 सांसदों का ही मत था। लेकिन कई दलों ने सांसदों ने अपनी पार्टियों द्वारा जारी व्हिप का उल्लंघन कर सरकार के पक्ष में वोट दे दिया या फिर वे अनुपस्थित हो गए। इस कारण सरकारी पक्ष का वोट बढ़ गया। इतिहास में यह पहली बार हुआ कि प्रधानमंत्री सदन में हुई चर्चा के बाद और मतदान से पहले अपना जवाब नहीं दे पाये। सांसदों द्वारा अनैतिक खरीद-फरोख्त के खिलाफ जबर्दस्त नारेबाजी के कारण प्रधानमंत्री ने अपने भाषण की प्रति सदन के टेबल पर रख दी।
लोकसभा में हुई बहस के दौरान परमाणु करार के मुददे पर सदन में विभाजन साफ दिखा। अधिकांश दलों ने अमेरिका के साथ हुए इस करार पर सरकार द्वारा दस्तखत किये जाने का पुरजोर विरोध किया। इसलिए सरकार की इस जीत को करार के पक्ष में नहीं माना जा सकता है। अखिल हिन्द फारवर्ड ब्लाक इस करार का अनवरत विरोध जारी रखेगा और इसके खिलाफ जन प्रतिरोध को मजबूत करेगा। हमारी पार्टी संप्रग सरकार और सांप्रदायिक-अवसरवादी भाजपा के खिलाफ व्यापक प्लेटफार्म तैयार करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रहने देगी।
न्यूनतम साझा कार्यक्रम का उल्लंघन और संप्रग सरकार की नकामी
संप्रग सरकार के नाकामियों भरे चार साल के शासन के दौरान सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के कई वायदों को पूरा करने के लिए कदम ही नहीं उठाया। मनमोहन सिंह सरकार ने सीएमपी में किए वायदों को पूरा करने में पल्ले दर्जे की काहिली दिखाई है। कुछ मुददों पर जो नाममात्र की पहल की गई है, उसमें भारी ढीलापन, अपूर्णता और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार व्याप्त है।
वामदलों ने मई 2004 से ही संप्रग सरकार की प्रस्तावित दूर संचार, बीमा और खुदरा व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में बढोतरी का विरोध करना शुरू कर दिया था। जब सरकार ने पेंशन फंड को निजी कंपनियों के हाथों में देने और पेशन राशि को स्टाक मार्केट में लगाने का निश्चय किया तो उस समय भी वामदलों ने इस आशय से बनाए जानेवाले पेंशन फंड रेगुलेटरी डेवलWपमेंट अथारिटी बिल का जबर्दस्त विरोध किया। वाम ने मांग की थी कि कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) ब्याज दर को 9.5 फीसदी पर निर्धारित कर दिया जाए। लेकिन सरकार ने यह दर मात्र 8.5 फीसदी रखने का फैसला किया। वाम ने सरकार की बैंकिंग, नागरिक उड्डयन और रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में विदेशी निवेश मंगाने की नीतियों का भी जमकर विरोध किया। सरकार के ये उपरोक्त कदम सीधे तौर पर सीएमपी का उल्लंघन करनेवाले थे। वामदलों ने सरकार को भारत हेवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड (भेल) के 10 फीसदी शेयर बेचने के फैसले का विरोध किया और इसे रोकने मे सफलता भी पाई। लेकिन वामदलों द्वारा समर्थन वापसी के तुरंत बाद सरकार ने कामगार वर्ग की आवाज को दबाकर इसे बेचने का फैसला कर लिया। केवल वामदलों के दबाव में ही सरकार राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (नरेगा), आदिवासियों के लिए वन कानून और सूचना का अधिकार (आरटीआई) के बारे में कानून बनाने को तैयार हुई। यहांयह ध्यान देनेवाली बात है कि लगभग 50 वर्षों तक केंन्द्र की सत्ता मे अकेले बहुमत में रही कांग्रेस पार्टी ने कभी इन जन अधिकार कानूनों के बारे मे सोचा भी नहीं। अखिल हिन्द फारवर्ड ब्लाक सरकार द्वारा किए वायदे के अनुसार जन समर्थक नीतियों को लागू करवाने के लिए आगे भी संघर्ष जारी रखेगा।
महंगाई/मुद्रा स्फीति
देश का आम आदमी आज आवश्यक वस्तुओं की बेतहाशा बढ़ती कीमतों से भयंकर परेशानियों में फंसा हुआ है। संप्रग सरकार महंगाई रोकने में पूरी तरह नाकाम साबित हुई है और उसके द्वारा उठाये गये थोड़े-बहुत कदम अपर्याप्त और दिखावटी रहे हैं। महंगाई रोकने और मुद्रा स्फीति कम करने के मामले में सरकार पूरी तरह बयानबाजी पर निर्भर रही है। उसके द्वारा मुद्रा स्फीति को बाहर से आया बताने का तर्क लोगों के गले नहीं उतर रहा है। खाद्य अनाजों, दालों, खाद्य तेलों और सब्जियों की कीमतों के साथ ही निमार्ण सामग्री, जैसे सीमेंट और लोहे की कीमतों में भारी वृदिध से मुद्रा स्फीति में कुल मिलाकर 12 फीसदी की स्फीति दर्ज की गई है।
सरकार ने वामदलों द्वारा महंगाई रोकने के बारे में दिये गये सुझावों, जैसे जन वितरण प्रणाली को मजबूत करने और इसे व्यापक बनाने, जन वितरण प्रणाली के तहत खाद्य को राज्यों के हवाले करने, दाल-खाद्य तेल-चीनी जैसे कम से कम 15 वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल करने, संसद की स्थायी समिति द्वारा 25 कृषि उत्पादों का भविष्य में व्यापार रोकने के बारे में दी गयी संस्तुति को लागू करने, तेल पर कस्टम और एक्साइज ड्यूटी को फिर से निर्धारित करने, जमाखोरों और कालाबजारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने, आवश्यक वस्तु अधिनियम के प्रावधानों को मजबूत करने और जमाखोरों व कालाबजारियों से निपटने के लिए राज्य सरकारों को और अधिकार देने, को पूरी तरह नजरंदाज किया है।
जन वितरण प्रणाली गरीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा की तकनीक के रूप में सामने आया था। इसके तहत गरीबों को उनकी क्रय शक्ति के अंदर के मूल्यों पर आवश्यक दैनिक जरूरतों को पूरा करने की व्यवस्था की गयी थी। इन सामाजिक सुरक्षा पैमाने को और मजबूत करने की बजाये केंद्र सरकार ने पिछले साल जन वितरण प्रणाली के तहत आबंटित होनेवाले 71.69 लाख टन अनाजों में भारी कटौती कर इसे केवल 32.7 लाख टन कर दिया। राज्य सरकारों द्वारा इस कटौती का विरोध का भी कोई नतीजा नहीं निकल पाया। केरल को आबंटित खाद्य अनाजों में तो 82 फीसदी की कटौती की गयी और पश्चिम बंगाल के कोटे से 44 फीसदी की। सरकार दलील देती फिर रही है कि महंगाई का मुख्य कारण मांग और आपूर्ति में मेल न होना है। खाद्य अनाजों में हुआ नया उत्पादन भी लगातार बढ़ रही महंगाई पर काबू पाने में असफल रहा है। उत्पादन लक्ष्य पिछले 10 वर्षों में पूरा नहीं हो पाया है। 2006-07 में खाद्य अनाजों का कुल उत्पादन का लक्ष्य 2173 लाख टन रखा गया था लेकिन वास्तविक उत्पादन मात्र 2140 लाख टन ही हुआ। उत्पादन कम होने के बहुत से कारण हैं। इनमें कम उत्पादकता और कृषि में कम निवेश, सिंचाई का जरूरतों को अपराध के स्तर पर नजरंदाज किया जाना, उत्पादन में बढ़ती लागतें और बाजार में कृषि उत्पादों की कीमतें कम होना शामिल हो सकता है। खाद्य अनाजों की खेती से अधिक लाभकारी वाणिज्यिक अनाजों की खेती की ओर संक्रमण और इंफ्रास्ट्रक्चर सुविधाओं की कमी भी इन कारणों में शामिल हैं। यह भी एक बड़ी दुखद बात रही है कि जो देश गेहूं उत्पादन के मामले में स्वाबलंबी था, उसने इस साल 13 लाख टन गेहूं का आयात ऊची कीमतों पर विदेशों से किया है।
सरकार द्वारा महंगाई को कम करने के बारे में की गई घोषणाओं का असर वास्तविक तौर पर आवश्यक वस्तुओं और खाद्य पदार्थों की कीमतों पर नही हुआ है। सरकार द्वारा तथाकथित तरकीब अपनाने के बावजूद आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बड़ी तेजी से बढ़ी हैं। सरकार के अपने ही उपभोक्ता मामलों के विभाग द्वारा जारी आंकड़ों और देश के विभिन्न भागों में कार्यरत निजी शोध समूहों के अध्ययनों के अनुसार, आवश्यक खाद्य पदार्थों का खुदरा बाजार दिनानुदिन तेज होता जा रहा है। गेहूं की कीमत 9 रुपये किलो से 16-22 रुपये किलो तक पहुंच गई। आटा 10 रुपये से 16-18 रुपये, चावल 10 रुपये से 18-25 रुपये, ब्रेड 8 से 15 रुपये, चीनी 14 रुपये से 22 रुपये, मूंग दाल 24 रुपये से बढ़कर 50 रुपये, मसूर दाल 22 रुपये से 38 रुपये, अरहर दाल 26 रुपये से 38 रुपये, सरसों तेल 35 रुपये से बढ़कर 80 रुपये, वनस्पति 56 रुपये से 79 रुपये, राजमा 30 रुपये से बढ़कर 56 रुपये तक जा पहुंचे हैं। मुद्रा स्फीति की दरों के आंकड़ों को कम करके केवल थोक मूल्य इंडेक्स में 12 फीसदी की वृदिध को ही दिखाया गया है जबकि असलियत में यह खुदरा बाजार में कहीं ज्यादा है।
यहां यह भी बता दें कि भाजपानीत राजग सरकार ने अपने कार्यकाल में आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर जमाखोरों और कालाबाजारियों के लिए जमीन तैयार कर दिया था। उस सरकार ने 15 फरवरी 2002 को इस कानून में संशोधन किया जिसके बाद कोई भी डीलर गेहूं, धान, मोटे अनाज, चीनी, खाद्य तेल के बीज, खाद्य तेलं, गुड़, गेहूं उत्पाद और हाइड्रो उत्पादित खाद्य तेलों और वनस्पतियों को किसी भी स्तर पर कहीं भी खुले तौर पर खरीद, बिक्री, जमाखोरी, निर्यात, वितरण, नष्ट, अधिग्रहण, उपयोग या उपभोग करने को स्वतंत्र हो गया। इसके लिए उसे किसी तरह का लाइसेंस या अनुमति लेने की कोई जरूरत नहीं थी। इस कानून को तत्काल खत्म करना बहुत ही जरूरी था।
वैश्विक स्तर पर मुद्रा स्फीति का मूल कारण था नव उदारवादी नीतियों और वित्तीय पूंजी द्वारा नियंत्रित वैश्विक पूंजीवाद। नव उदारवादी नीतियां वित्तीय पूंजी के हित में काम करती हैं और इस कारण जनता के बड़े वर्ग की आय में कमी आ जाती है। कृषि जगत में आए संकट के लिए उपरोक्त कारणों में एक और कारण जुड़ जाता है। वह है अनाज उत्पादन की जगह बायो र्इंधन के लिए गैर खाद्य अनाजों का उत्पादन किया जाना, जिससे आपूर्ति का संकट पैदा हो जाता है। इससे भी अधिक वस्तुओं के विनिमय में व्यापक लाभ की आशा स्थिति को और संकटपूर्ण बना देती है। आवश्यक वस्तुओं का कुल वैश्विक व्यापार का बाजार 513 खरब डाWलर का है जो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 10 गुना और स्टाक मार्केट में कुल वैश्विक व्यापार का 5 गुना है। भारत में प्रति व्यक्ति खाद्य उपभोग केवल 178 किलो है जो अमेरिका का पांचवां हिस्सा ही है। देश के करीब 65 करोड़ लोग सीधे तौर पर खेती पर आश्रित हैं। 2005-06 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का शेयर 19.7 फीसदी था जो 2006-07 में घटकर मात्र 18.5 फीसदी रह गया। 1990 और 2007 के दौरान भारत की आबादी में 1.97 की वृद्धि हुई है। इस अवधि के दौरान खाद्य अनाजों में मात्र 1.7 फीसदी की वृद्धि हुई। इसका मतलब है भारत में प्रति व्यक्ति खाद्य उपभोग में कमी आई है।
आर्थिक उदारीकरण और वैश्विकरण की प्रक्रिया की भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में चढ़ी महंगाई के आलोक में समीक्षा की जानी चाहिए। वैश्विकरण और उदारीकरण के जो व्यापक प्रभाव हुए हैं, वे हैं,
1. दुनिया के देशों की अर्थव्यवस्था एक-दूसरे से जुड़ गईं।
2. बाजार ने सरकारों को एक परिधि मे समेट दिया है। पूरी दुनिया में राष्ट्रीय सरकारें वित्तीय बाजारों पर अपना नियंत्रण खो चुकी हैं। खाद्य अनाज और खनिज बाजारों पर वस्तु विनिमय के आधार पर बड़े वैश्विक बैंकों और वित्तीय फमों॔ का कब्जा हो चुका है। जमाखोर तभी बड़े लाभांशों को जारी करते हैं जब वस्तुओं का विशाल स्टोर हो या जमाखोरी ज्यादा हो गयी हो। खाद्य अनाजों के बड़े व्यापारी बड़ी मात्रा में जमाखोरी करके रखते हैं और मौका देखकर अपने स्टाक को ऊंची कीमतों पर बेच देते हैं। इस तरह से कंपनियों को दोहरा लाभ हो जाता है। पिछले साल मोंसेंटों ने 1 अरब 44 करोड़ डालर की कमाई की और इस साल उसकी कुल कमाई 2 अरब 22 करोड़ डालर हो गयी। कारगिल कारपोरेशन का मुनाफा पिछले तीन महीनों में 86 फीसदी बढ़कर 55 करोड़ 30 लाख डालर से 1 अरब 3 करोड़ डालर तक पहुंच गया है। सोया, मक्का और गेहूं की सबसे बड़ी प्रोसेंसिंग कंपनी एडीएम (आर्चर डैनियल मिडलैंडस) ने अपने मुनाफे में इस साल की पहली तिमाही में 42 फीसदी की बढ़ोतरी की है। इसका मुनाफा 36 करोड़ 60 लाख डालर से बढ़कर 51 करोड़ 17 लाख डालर हो गया है।
आल इण्डिया फारवर्ड ब्लाक महंगाई और बहुराष्ट्रीय निगमों की लूट-खसोट और उनके साम्राज्यवादी आकाओं के खिलाफ जन संघर्ष को तेज करेगा।
कॄषि जनित संकट
हमारे देश में कृषि क्षेत्र इस समय गहरे संकट में है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान पिछले वर्षों में घटता गया है। हाल के वर्षों में इस वृहतकाय सेक्टर को तब गहरा झटका लगा है जब नौंवी पंचवर्षीय योजना में इस क्षेत्र मे विकास दर मात्र 2 फीसदी रही और 10वीं योजना में मात्र 2.3 फीसदी। जबकि इन दोनों योजनाओं के दौरान 4 फीसदी विकास दर का लक्ष्य रखा गया था।
पिछले चार सालों में औसत आर्थिक विकास 7.5 फीसदी से 9.4 फीसदी प्रतिवर्ष के आसपास रहा है। लेकिन इस दौरान कृषि क्षेत्र में यह दर मुश्किल से 2 फीसदी तक गई। भारत में कृषि क्षेत्र में दी जानेवाली सब्सिडी असल में कृषि की सांस चलते रहने भर से अधिक कुछ भी नहीं है। यह भी दुनिया भर में सबसे कम है। जब हमारे देश में कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति सब्सिडी केवल 8.47 अमेरिकी डालर (लगभग 364 रुपये) है तब जापान में यह सबसे ज्यादा 386.29 अमेरिकी डालर, यूरोपीय संघ में 280. 66 अमेरिकी डालर, कनाडा में 179.40 अमेरिकी डालर और अमेरिका में 144.32 डालर है। वर्तमान में कृषि क्षेत्र सरकार की विकास योजनाओं का केंद्रीय तत्व नहीं रह गया है। कृषि और उससे जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर में सार्वजनिक निवेश मे उल्लेखनीय कमी आई है और तमाम सरकारी घोषनाओं के बावजूद अब तक कृषि क्षेत्र को सबसे कम ऋण दिया गया है। ग्रामीण भारत में सरकारी निवेश और निजी निवेश के बावजूद किसानों का संकट बढ़ता जा रहा है जो खाद्य अनाजों के लिए घटती जमीन से स्पष्ट हो जाता है। पिछले आठ वर्षों में 1,66,304 किसानों ने आत्महत्या की है और 20,000 किसान भूख से मर गए। प्रति वर्ष करीब 33 लाख किसान अपनी जमीन बेचने को मजबूर होते हैं। किसानी की बदहाली के लिए राजग सरकार द्वारा कृषि उत्पादों के आयात पर लगी मात्रात्मक रोक हटाने की नीति भी कम जिम्मेदार नहीं है। यह सुनने में झूठ लगता है लेकिन है सच कि हमेशा विकास की बीन बजानेवाली संप्रग सरकार की नीतियों में किसानों की चिंता कभी नहीं रही हैं। वित्तमंत्री को मजबूर होकर प्रचारित 9.6 फीसदी विकास दर को घटाकर 8.7 फीसदी करना पड़ा। वैश्विक मंदी के कारण कम हुई यह दर बजट की प्रस्तुति के तुरंत बाद और घटकर 8.5 फीसदी पर आ गई।
बजट को लोकप्रिय बनाने के लिए वित्तमंत्री ने दो हेक्टेयर या उससे कम जमीन जोतनेवाले छोटे और सीमांत किसानों के 60,000 करोड़ का कृषि ऋण माफ करने की घोषणा बजट में कर दी। उनका दावा है कि इस माफी योजना से 4 करोड़ किसान लाभान्वित होंगे। लेकिन यह शीशे की तरह साफ है कि इन घोषणाओं से किसानों की बदहाली में किसी प्रकार का गुणात्मक सुधार होनेवाला नहीं है। सरकार द्वारा कृषि ऋण का अध्ययन कर रिपोर्ट देने के लिए गठित विशेषज्ञों के समूह ने इस बात का खुलासा किया है कि 50 फीसदी से अधिक किसान महाजनों से ऊंची दरों पर ऋण लेते हैं। बजट में किए प्रावधान केवल संस्थागत ऋणों के लिए हितकारी साबित होनेवाला है। इस तरह के संस्थागत तरीके से ऋण लेने वाले किसान कुल ऋणग्रस्त किसानों के मात्र 20 फीसदी ही हैं। इनमें न चुकाया गया ऋण मात्र 5 फीसदी है। इसलिए ऋण लेनेवाले अधिकांश किसानों को इस योजना का कोई लाभ मिलनेवाला नहीं है।
अदभूत बात यह है कि माफी की इस राशि का उल्लेख बजट में नहीं है। सरकार अपने बांडों के साथ पोर्टफोलियो ऋण के बदले इन किसानों के ऋण को माफ करने के लिए बैंकों से कह सकती है। इस प्रकार इस माफी के लिए किसी वित्तीय स्त्रोत की जरूरत नहीं पड़ेगी। सरकार केवल ब्याज का भुगतान कर देगी। दूसरे शब्दों में इस तरह के प्रावधान से बैकों के पोर्टफोलियो में सुधार होगा और उन्हें ब्याज के रूप में आय उपलब्ध कराएगा।दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वित्तमंत्री ने कहां से 60,000 करोड़ रुपये के कृषि ऋण और लाभान्वित होनेवाले 4 करोड़ किसानों का आंकड़ा लिया ?घोषणा करने से पहले उन्होंने आंकड़ा जुटाने के लिए न तो राज्यों के कृषि मंत्रियों से और न ही बैंकों के प्रमुखों से कोई चर्चा की। ठीक इसी समय वित्तमंत्री ने 4 फीसदी ब्याज दर पर कृषि ऋण उपलब्ध कराने के प्रस्ताव, ग्रामीण ऋण राहत आयोग के गठन और कृषि जनित विकास के लिए अधिक निवेश किये जाने संबंधी प्रस्तावों को पूरी तरह नजरंदाज कर दिया। अब यह पूरी तरह स्पष्ट है कि हमारे देश की कुल आबादी में 70 फीसदी किसानों की दशा आगे भी बदतर होती जाएगी और वे आत्महत्या करने पर मजबूर होते जाएंगे। जन विकल्प भारतीय राजनीति के वर्तमान परिदृश्य में भारत का प्रगतिशील तबका कांग्रेस और भाजपा के जन विकल्प का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहा है। देश के लोग इस बात का अनुभव कर रहे हैं कि दोनों बुर्जुआ पार्टियां राजनीति और आर्थिक हित के मामले में एक समान हैं। दोनों दल अमेरिकी साम्राज्यवादी ताकतों के साथ और उनके हित में काम करने में ही खुद को पुरसकून महसूस करती हैं।
धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा की व्यापकता गठबंधन राजनीति का दौर शुरू होने के साथ ही गर्त में चली गयी है। धर्मनिरपेक्षता के माध्यम से हम सभी धर्मों को अवसर और सहायता की समानता के विचार को स्थापित करने की कोशिश करते हैं और उम्मीद करते हैं कि लोग भी इसी भावना से लोकतांत्रिक व्यवस्था में मतदान भी करें। लेकिन धर्मनिरपेक्षता का यह कतई मतलब नही है कि किसी धर्म से कोई वास्ता ही कोई न रखे। धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म विरोध भी नहीं है बल्कि अति सूक्ष्मता में यह गैर धार्मिक है। एक लोकतंत्र में, खासकर धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी लोकतांत्रिक दल को किसी प्रकार के धार्मिक मामलों को संरक्षण देने से गुरेज करना चाहिए। अगर कोई दल ऐसा करता है तो वह लोकतंत्र की भावना के खिलाफ काम करता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि भारतीय जनता पार्टी की जड़ें एक खास धार्मिक समुदाय से गहरे जुड़ी हुई हैं और वह धार्मिक मुददों को राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उछालती रहती है।
यह निश्चित तौर पर एक गैर-धर्मनिरपेक्ष पार्टी है, जिसे क्रूरता की हद तक सांप्रदायिक कहा जा सकता है। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी है, जिसे कई बार कुछ वाम दलों की ओर से धर्मनिरपेक्ष कहा गया है। लेकिन इस पार्टी ने देश को गलत दिशा में ले जाने और लोगों की स्थिति को बदतर बनाने का काम किया है। इन सबसे लोग इस पार्टी के बारे में खराब धारणा बनाने को मजबूर हुए हैं। अतीत में अनेक मामलों में कांग्रेस ने सांप्रदायिक, क्षेत्रीयतावादी, संकीर्णतावादी और गुटवादी ताकतों का साथ दिया है। कांग्रेस खुद भी पूरी तरह दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी पार्टी रही है और साम्राज्यवादी लाबी के हित में काम करती रही है। अखिल हिन्द फारवर्ड ब्लाक ने शुरुआती दिनों मे ही कांग्रेस को परख लिया था और अब भी अपनी पुरानी धारणा पर अटल है। पार्टी अपने विश्लेषणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि भाजपा और कांग्रेस में, मुलायम सिंह यादव और मायावती में कोई मौलिक अंतर नहीं है। और सांप्रदायिक ताकतों और साम्राज्यवादी दलालों में भी कोई मौलिक अंतर नहीं है। हम अपनी राष्ट्रीय राजनीति में हाल की घटनाओं को न भूलते हुए, कोई छिछला विश्लेषण न करते हुए और केंद्र या कहीं और की सत्ता में भागीदारी की कोई आकांक्षा न करते हुए अपनी पार्टी की राष्ट्रीय समिति की इस विशेष बैठक में यह निश्चय करते हैं कि हम अब आगे से कांग्रेस के साथ कोई सहयोग या समर्थन नहीं करेंगे। हम अपनी एक नीति तय करेंगे कांग्रेस व भाजपा के खिलाफ संघर्ष को आगे बढ़ाएंगे।
इन दोनों बुर्जुआ दलों का राजनीति विकल्प तैयार करना वर्तमान समय की मांग है। यह विकल्प केवल चुनावी गठबंधन तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। इसे जन कार्रवाई के माध्यम से अवतरित होना होगा। वामदल कार्रवाई के लिए इस तरह का प्लेटफार्म बनाने के लिए और जोर-शोर से काम करेंगे। सभी वामपंथी दलों और सामाजिक संगठनों को समान विचारधारा वाली लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक प्लेटफार्म पर लाने के लिए एकताबद्ध होना चाहिए और कांग्रेस व भाजपा के विकल्प में सही अर्थों में एक जन विकल्प तैयार करना चाहिए। फारवर्ड ब्लाक इस दिशा में काम करने को पूरी तरह प्रतिबद्ध है। एक तरह का वैचारिक मतभेद बड़ी तेजी से उभर रहा है। हमारी पार्टी ने पिछली राष्ट्रीय समिति की बैठक और पार्टी कांग्रेस में बहुत पहले ही स्पष्ट रूप से साफ कर दिया था कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद जनता और समाज के मुख्य दुश्मन हैं। सीपीआई और सीपीएम वास्तव में साम्राज्यवाद को तो दुश्मन मानती है और इसके खिलाफ जन संघर्ष की बात भी स्वीकार करती है लेकिन वह पूंजीवाद के समर्थन में खड़ी है। इस पूंजीवाद को ये वाम पार्टियां वर्तमान सामाजिक परिदृश्य और माक्र्सवाद के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अति महत्वपूर्ण और जरूरी मानकर चल रही हैं। इस कारण समीकरण को लेकर वे बड़ी दुविधा में हैं। क्योंकि जब पूंजीवाद ही साम्राज्यवाद का जन्मदाता है तो साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई का मतलब पूंजीवाद के खिलाफ लड़ाई भी हो जाता है। जब यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि इन दोनों बड़े वामदलों का झुकाव संसदीय लक्ष्य के साथ ही पूंजीवाद की ओर हो चुका है, तो भविष्य में हमारे देश में पूंजीवाद विरोधी मुददों पर व्यापक लोकतांत्रिक फोरम बनाना बहुत ही मुश्किल काम हो जाएगा।
इन परिस्थितियों में, हमें अपने विचारों और विश्लेषणों को बहुत साफ और प्रमुखता के साथ जनता के सामने रखना चाहिए और राजनीतिक बहस शुरू करनी चाहिए। इससे भविष्य में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ आंदोलन चलाने के लिए व्यापक वाम लोकतांत्रिक फोरम गठित करने में मदद मिल सकेगा। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्ध आज की जरूरत है। लेकिन इस युद्ध को संपूर्ण राष्ट्रीय राजनीतिक जीवन में कैसे उतारा जा सकता है। इसके लिए तीन बिंदु निश्चित किए गए हैं।
क. प्रथम चरण में, हम सभी कांग्रेस-भाजपा विरोधी, पूंजीवाद-संप्रदायवाद-गुटबंदी विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी वाम ताकतों को अपने दल के करीब लाएंगे। हम उन ताकतों को भी करीब लाएंगे जो मानवाधिकार और अन्य सामाजिक मुददों को लेकर काम कर रहे हैं।
ख. दूसरे चरण में, हम पार्टी का मजबूत संगठन बनाएंगे जिसमें एक निश्चित सिद्धांत और उच्च स्तर का अनुशासन होगा। इसमें एक व्यक्ति, एक पद का सिद्धांत बहुत ही कठोरता से लागू किया जाएगा। सदस्यता नियमों को बहुत ही कठोरता के साथ लागू किया जाएगा और इस प्रक्रिया को एक तय समय सीमा के भीतर पूरा किया जाएगा। सभी प्रकार की गुटबाजियों को तुरंत रोका जाएगा और ऐसे गुटबाजों को दंडित किया जाएगा। संविधान, अनुशासन, नियम और उच्च समितियों के आदेशों का उल्लंघन करनेवालों से सख्ती से निपटा जाएगा। भ्रष्टाचारियों को भी संकट का सामना करना पड़ेगा।
ग. और तीसरा चरण बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर होगा। इस चरण में प्रत्येक ईकाई अपने दो दुश्मनों से एकसाथ लड़ेगी। एक के बाद एक परिवार, पड़ोस, इलाका, क्षेत्र, विधानसभा क्षेत्र में पार्टी के विचारों, भावनाओं, व्यवहार और जीवन शैली को प्रचारित किया जाएगा। इसके बाद विरोध और आंदोलन की पूरी प्रक्रिया शुरू की जाएगी। और इस मामले में पार्टी के जनमोर्चे पर सबसे अधिक ध्यान और प्रयास किए जाएंगे, जो ईकाइयों की अंतिम परिणति होगी। जनमोर्चे को सर्वाधिक प्राथमिकता पर रखा जाएगा जिसके बलबूते पर पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्ध लड़ा जाएगा। इनमें से प्रत्येक योजना और कार्यक्रम को तत्काल क्रियान्वित किया जाएगा।
राष्ट्रीय समिति की बैठक का आहवान
अखिल हिन्द फारवर्ड ब्लाक की राष्ट्रीय समिति की यह विशेष बैठक लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले नागरिकों का निम्न बिंदुओं पर दुधर्ष संघर्ष का आहवान करती है :-
1. नव साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खिलाफ बिनाशर्त संधर्ष।
2. हमारी मातृभूमि की उच्च स्तरीय लोकतांत्रिक परंपरा को बनाए रखने के लिए संघर्ष।
3. नव साम्राज्यवादियों और पूंजीवादियो और उनके भारतीय एजेंटों से भारतीय अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए संघर्ष।
4. कृषि की रक्षा और किसानों को आत्महत्या से बचाने के लिए संघर्ष।
5. नव साम्राज्यवाद के नंगे हस्तक्षेप से अपनी घरेलू और विदेश नीति को बचाने के लिए जन कार्रवाई को मजबूत करने के लिए संघर्ष।
6. सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष।
7. नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ संघर्ष।
8. भारत को नेताजी के सपनों का भारत बनाने के लिए संघर्ष।
9. नेताजी के भारत को एक समाजवादी भारत बनाने के लिए संघर्ष।
जय हिन्द
देवव्रत बिश्वास
महासचिव
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